उमा शशिकांत
लंबे अरसे से गुम पीपीएफ पासबुक पिछले सप्ताह मुझे मिल गई। यह उन फाइलों में मिली, जिनमें इंटरनेट के जमाने के पहले के इनवेस्टमेंट पेपर्स रखे थे। मैंने 1990 के दशक के आखिरी वर्षों में यह अकाउंट खोला था और इसमें 10 साल तक पैसे डाले।
जब हम नवी मुंबई से अपने घर में आए तो उसी दौरान पासबुक गुम हो गई थी। मैंने यह सोचकर संतोष कर लिया था कि पैसा अकाउंट में तो है ही और किसी दिन मैं उसे रिकवर कर लूंगी। बहरहाल जब मैं बैंक गई और मुझे मोटी रकम मिली तो बड़ी खुशी हुई। मैं इससे वह सब खरीदूंगी, जो पहले मैंने पहले कभी नहीं खरीदा था। इस तरह मेंटल अकाउंटिंग का गेम शुरू हो गया।
मेंटल अकाउंटिंग का ताल्लुक इस बात से है कि पैसा मिलने के स्रोत के अनुसार उसके बारे में हमारी राय बदलती है, भले ही असल बात यह है कि पैसा तो पैसा ही है। लॉटरी जीतने वाले इसे बखूबी जानते हैं। वे ऐसी रकम से न केवल अपने और अपने परिवार के लिए लग्जरियस आइटम्स खरीदते हैं, बल्कि उन पर अपने रिश्तेदारों की जरूरतें पूरी करने का दबाव भी आता है क्योंकि सभी लोग ऐसी रकम को 'फ्री' समझते हैं। सैलरी को शायद ही कोई इस नजर से देखता हो।
लोग प्राय: अपनी रकम बैंक के एफडी में 8% ब्याज पर लगाए रहते हैं और 11% पर लोन ले लेते हैं, जबकि उन्हें एफडी तोड़ लेनी चाहिए। हकीकत यह है कि हम खुद को समझाते हैं कि हमें बचत को हाथ नहीं लगाना चाहिए। हम लोन इसलिए ले लेते हैं कि उसे तो अनुशासित ढंग से चुकाना ही है। हमें भरोसा नहीं होता है कि अगर एफडी तोड़ दें तो दोबारा अनुशासित ढंग से दूसरी एफडी कर लेंगे।
जो कस्टमर अपने एफडी तोड़ने आते भी हैं, बैंक उन्हें डिपॉजिट पर लोन या ओवरड्राफ्ट सुविधा ऑफर कर देते हैं। हमारी मानसिक सीमा बैंकों के लिए फायदे की बात है। मेंटल अकाउंटिंग से ही बच्चों के लिए निवेश, जल्द मकान खरीदने, कई अकाउंट्स खोलने, कुछ खास बातों के लिए निवेश तय करने जैसी बातें सामने आती हैं। हम यह नहीं समझते कि हमारी पूरी रकम एक पूल में ही तो है। इस आदत का इस्तेमाल हम अपने फायदे के लिए कर सकते हैं।
गोल्ड के ऐसे बर्तन की कल्पना करें, जिसमें पैसा है और हम इसका इस्तेमाल तभी करेंगे, जब हम रिटायर हो जाएंगे। इसमें ट्रिक यह है कि खुद को समझाएं कि इसमें झांकना नहीं है। मेंटल अकाउंट बनाने के लिए ऐसी कल्पना अहम है। एक तारीख तय कर लें और तय करें कि उससे पहले पैसे को हाथ नहीं लगाना है और न ही यह देखना है कि उसमें कितनी रकम है।
अब अपने पीएफ बैलेंस के बारे में सोचें। पूरी संभावना है कि आपको पता नहीं होगा कि वहां कितनी रकम है। आपके रिटायरमेंट के लिए यह रकम इकट्ठा हो रही है क्योंकि हमने दिमाग में तय कर लिया है कि इसे रिटायर होने पर ही छूना है। दुखद हकीकत यह है कि यह रकम शायद पर्याप्त न हो। मेंटल अकाउंटिंग का यूज करते हुए एक और पूल बनाएं। इस बार इक्विटी फंड्स का और इसमें योगदान करें हर महीने, जैसे वीपीएफ में करते हैं। अंतर महसूस होगा।
एक नियम यह भी बनाएं कि जब भी एकमुश्त रकम मिले, उसका आधार हिस्सा बच्चों का है या किसी चैरिटेबल मकसद के लिए है। अगर आपने केवल 50% रकम के यूज के लिए खुद को अनुशासित कर लिया तो आप पाएंगे कि आपकी डिफॉल्ट सेविंग्स बढ़ रही हैं।
तीसरी बात यह है कि अपने इनवेस्टमेंट्स और सेविंग्स को हमेशा इनकम अकाउंट्स में रखें, न कि उन्हें अलग-अलग देखें। सिस्टेमैटिक इनवेस्टमेंट्स, रेकरिंग डिपॉजिट्स, ईएमआई और गोल्ड स्कीम्स इस दायरे में आती हैं। खर्च खूब सोच-समझ कर करें। जब गेन और इनकम को अलग-अलग देखेंगे तो पाएंगे कि गेन तो दरसअल फ्री मनी है।
लंबे अरसे से गुम पीपीएफ पासबुक पिछले सप्ताह मुझे मिल गई। यह उन फाइलों में मिली, जिनमें इंटरनेट के जमाने के पहले के इनवेस्टमेंट पेपर्स रखे थे। मैंने 1990 के दशक के आखिरी वर्षों में यह अकाउंट खोला था और इसमें 10 साल तक पैसे डाले।
जब हम नवी मुंबई से अपने घर में आए तो उसी दौरान पासबुक गुम हो गई थी। मैंने यह सोचकर संतोष कर लिया था कि पैसा अकाउंट में तो है ही और किसी दिन मैं उसे रिकवर कर लूंगी। बहरहाल जब मैं बैंक गई और मुझे मोटी रकम मिली तो बड़ी खुशी हुई। मैं इससे वह सब खरीदूंगी, जो पहले मैंने पहले कभी नहीं खरीदा था। इस तरह मेंटल अकाउंटिंग का गेम शुरू हो गया।
मेंटल अकाउंटिंग का ताल्लुक इस बात से है कि पैसा मिलने के स्रोत के अनुसार उसके बारे में हमारी राय बदलती है, भले ही असल बात यह है कि पैसा तो पैसा ही है। लॉटरी जीतने वाले इसे बखूबी जानते हैं। वे ऐसी रकम से न केवल अपने और अपने परिवार के लिए लग्जरियस आइटम्स खरीदते हैं, बल्कि उन पर अपने रिश्तेदारों की जरूरतें पूरी करने का दबाव भी आता है क्योंकि सभी लोग ऐसी रकम को 'फ्री' समझते हैं। सैलरी को शायद ही कोई इस नजर से देखता हो।
लोग प्राय: अपनी रकम बैंक के एफडी में 8% ब्याज पर लगाए रहते हैं और 11% पर लोन ले लेते हैं, जबकि उन्हें एफडी तोड़ लेनी चाहिए। हकीकत यह है कि हम खुद को समझाते हैं कि हमें बचत को हाथ नहीं लगाना चाहिए। हम लोन इसलिए ले लेते हैं कि उसे तो अनुशासित ढंग से चुकाना ही है। हमें भरोसा नहीं होता है कि अगर एफडी तोड़ दें तो दोबारा अनुशासित ढंग से दूसरी एफडी कर लेंगे।
जो कस्टमर अपने एफडी तोड़ने आते भी हैं, बैंक उन्हें डिपॉजिट पर लोन या ओवरड्राफ्ट सुविधा ऑफर कर देते हैं। हमारी मानसिक सीमा बैंकों के लिए फायदे की बात है। मेंटल अकाउंटिंग से ही बच्चों के लिए निवेश, जल्द मकान खरीदने, कई अकाउंट्स खोलने, कुछ खास बातों के लिए निवेश तय करने जैसी बातें सामने आती हैं। हम यह नहीं समझते कि हमारी पूरी रकम एक पूल में ही तो है। इस आदत का इस्तेमाल हम अपने फायदे के लिए कर सकते हैं।
गोल्ड के ऐसे बर्तन की कल्पना करें, जिसमें पैसा है और हम इसका इस्तेमाल तभी करेंगे, जब हम रिटायर हो जाएंगे। इसमें ट्रिक यह है कि खुद को समझाएं कि इसमें झांकना नहीं है। मेंटल अकाउंट बनाने के लिए ऐसी कल्पना अहम है। एक तारीख तय कर लें और तय करें कि उससे पहले पैसे को हाथ नहीं लगाना है और न ही यह देखना है कि उसमें कितनी रकम है।
अब अपने पीएफ बैलेंस के बारे में सोचें। पूरी संभावना है कि आपको पता नहीं होगा कि वहां कितनी रकम है। आपके रिटायरमेंट के लिए यह रकम इकट्ठा हो रही है क्योंकि हमने दिमाग में तय कर लिया है कि इसे रिटायर होने पर ही छूना है। दुखद हकीकत यह है कि यह रकम शायद पर्याप्त न हो। मेंटल अकाउंटिंग का यूज करते हुए एक और पूल बनाएं। इस बार इक्विटी फंड्स का और इसमें योगदान करें हर महीने, जैसे वीपीएफ में करते हैं। अंतर महसूस होगा।
एक नियम यह भी बनाएं कि जब भी एकमुश्त रकम मिले, उसका आधार हिस्सा बच्चों का है या किसी चैरिटेबल मकसद के लिए है। अगर आपने केवल 50% रकम के यूज के लिए खुद को अनुशासित कर लिया तो आप पाएंगे कि आपकी डिफॉल्ट सेविंग्स बढ़ रही हैं।
तीसरी बात यह है कि अपने इनवेस्टमेंट्स और सेविंग्स को हमेशा इनकम अकाउंट्स में रखें, न कि उन्हें अलग-अलग देखें। सिस्टेमैटिक इनवेस्टमेंट्स, रेकरिंग डिपॉजिट्स, ईएमआई और गोल्ड स्कीम्स इस दायरे में आती हैं। खर्च खूब सोच-समझ कर करें। जब गेन और इनकम को अलग-अलग देखेंगे तो पाएंगे कि गेन तो दरसअल फ्री मनी है।
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