कमीशन और इनसेंटिव्स के मामले में काफी खेल होते हैं। सेल्समैन को बेतुके पेमेंट किए जाते हैं और एक्सपर्ट एडवाइजर्स पीछे छूट जाते हैं। और इस खेल के बीच लाखों इनवेस्टर्स दुविधा में रहते हैं कि निवेश के फैसले करते वक्त किन पर भरोसा किया जाए। रेगुलेटरी सिस्टम को इनवेस्टर्स के हितों पर फोकस करना चाहिए और इनवेस्टर्स को सर्विस देने पर लोगों को मिलने वाले इनसेंटिव्स को दुरुस्त करने पर ध्यान देना चाहिए। मौजूदा सिस्टम डिस्ट्रीब्यूटर और एडवाइजर में फर्क करता ही नहीं है। लाखों लोग इक्विटी स्टॉक्स में ट्रेड करते हैं और ब्रोकर्स को कमीशन देते हैं। लकी रहे तो वे पैसा बनाते हैं और गलत दांव लगा तो उनकी शर्ट उतर जाती है। ऐसे इनवेस्टर्स के फैसलों की वजह बनने वालों पर न तो इनवेस्टर सवाल उठा रहे हैं और न ही रेगुलेटर। फाइनेंशियल प्रॉडक्ट डिस्ट्रीब्यूशन और एडवाइस के मामले में हम इसी बात पर सिर खपाते हैं कि किसको और कितना पेमेंट करना चाहिए। हमें दरअसल यह देखना चाहिए कि किसे क्या करना चाहिए और कैसे। डिस्ट्रीब्यूटर किसी कंज्यूमर तक प्रॉडक्ट पहुंचाता है। अखबार या शैंपू सैशे के वेंडर की तरह। हालांकि फाइनेंशियल प्रॉडक्ट्स के साथ फर्क यह है कि इनके लिए पैसे चुकाने वाला कंज्यूमर हो सकता है कि बाद में इसका फायदा न ले पाए। यहीं पर मिस-सेलिंग का पहलू आता है। यह समस्या दूर करने के लिए हमने लगातार कहा है कि डिस्ट्रीब्यूटर को कस्टमर की फाइनेंशियल प्रॉब्लम्स सुलझाने और हो सके तो उसके लिए फाइनेंशियल प्लान बनाने के लिए काफी अध्ययन करने और एक सीमा के पार जाकर योग्यता हासिल करने की जरूरत होती है। अखबार के वेंडर से तो हम यह उम्मीद नहीं करते हैं कि वह संपादकीय पढ़कर हमें उसका मतलब समझाए। कोई भी खालिस डिस्ट्रीब्यूटर दरअसल सेलर होता है। कमीशन से उसका काम चलता है और यह इतना कम होना चाहिए कि वह सर्वाइव करने के लिए ज्यादा से ज्यादा सेलिंग करे। कमीशन इतना ज्यादा न हो कि वह इसके धोखे में खुद को फाइनेंशियल एक्सपर्ट समझने लगे। यही वजह है कि पोस्ट ऑफिस के सेविंग प्रॉडक्ट्स पर 4% का कमीशन गलत था, बीमा पॉलिसी पर अपफ्रंट कमीशन गलत है और म्यूचुअल फंड्स के लिए मोटा अपफ्रंट कमीशन भी गलत है। ये तो सेल्स कमीशन हैं। इनवेस्टर के हित में इस पर अंकुश लगना चाहिए। लेकिन तब फाइनेंशियल प्रॉडक्ट्स ज्यादा इनवेस्टर्स तक कैसे पहुंचेंगे? किसी भी इनवेस्टर को यह समझे बगैर किसी फाइनेंशियल प्रॉडक्ट में पैसा लगाना ही नहीं चाहिए कि उसे इसकी जरूरत है या नहीं और यह प्रॉडक्ट किस तरह काम करता है। यही वजह है कि फाइनेंशियल डिस्ट्रीब्यूशन को बेहतर बनाने के लिए फाइनेंशिय एडवाइस पहले दी जानी चाहिए। दो रास्ते हैं। एक यह है कि इनवेस्टर अपने ज्ञान के आधार पर इनवेस्ट करे और डिस्ट्रीब्यूटर से डील करे। दूसरा रास्ता यह है कि इनवेस्टर किसी फाइनेंशियल एडवाइजर की सलाह ले। हम डिस्ट्रीब्यूटर-सेलर को दोष देते रहते हैं, जो ज्यादा से ज्यादा सेल्स हासिल करने की मजबूरी में विशेषज्ञता हासिल करने की रेस में पीछे छूट जाते हैं। चूंकि हम कस्टमर को गलत प्रॉडक्ट थमा दिए जाने की हरकतें बंद करना चाहते हैं, लिहाजा एडवाइजर्स की भूमिका, उनकी फीस, उनके नियमों और योग्यता का खाका खींचते रहते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि अगर सेलर-डिस्ट्रीब्यूटर अपना माल आसानी से बेच रहा होगा तो एडवाइजर को कौन पैसा देगा। हमें डिस्ट्रीब्यूशन को आसान बना देना चाहिए। फाइनेंस की भारी-भरकम बातों को इतना सरल कर दीजिए कि सभी को पता हो कि वे डिस्ट्रीब्यूटर से कहीं भी कोई भी प्रॉडक्ट खरीद सकते हैं। ऐसा होने पर सेलिंग की मेहनत घटेगी और इसके साथ कमीशन भी। इससे इनवेस्टर को ही फायदा होगा। पक्का करें कि डिस्ट्रीब्यूटर्स सलाह बांटते न फिरें। एडवाइजर के लिए क्वॉलिफिकेशन की शर्तें ऊंची कर दें। एडवाइजर को डिस्ट्रीब्यूटर से ज्यादा पैसे मिलने चाहिए और जब तक इनवेस्टर साफ कह न दे कि वह खुद फैसले करना चाहता है, तब तक हर फाइनेंशियल प्रॉडक्ट में इनवेस्टर के लिए उपयुक्त सलाहकार की सिफारिश को अनिवार्य कर दें।
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