धीरेंद्र कुमार, सीईओ, वैल्यू रिसर्च पिछले कुछ साल में म्यूचुअल फंड्स की इनवेस्टर्स से ली जाने वाली फीस ऐसे प्वाइंट पर पहुंच गई है, जिससे इनवेस्टर्स के रिटर्न पर नेगेटिव इंपैक्ट हो रहा है। कई रेगुलेटरी बदलावों के चलते इक्विटी फंड्स पर इनवेस्टर्स को सालाना इनवेस्टमेंट पर 3 पर्सेंट तक की फीस देनी पड़ रही है। 2012 तक इसकी लिमिट 2.5 पर्सेंट तय थी। इसमें 1.25 पर्सेंट मैनेजमेंट फीस और बाकी पैसा वास्तविक खर्च के लिए था। अगर वास्तविक खर्च कम रहता था, तो म्यूचुअल फंड्स फीस 2.5 पर्सेंट की मैक्सिमम लिमिट से नीचे रहती थी। इंडस्ट्री दोनों को मिलाकर एक लिमिट तय करने की मांग कर रही थी। सेबी ने बाद में उनकी मांग मानते हुए 2.5 पर्सेंट की लिमिट तय कर दी। हालांकि इसके साथ दूसरे बदलाव भी हुए, जिससे इनवेस्टर्स की इनवेस्टमेंट कॉस्ट में बढ़ोतरी हुई है। पहला बदलाव यह था कि पहले सर्विस टैक्स मैनेजमेंट फीस पर लगता था। बाद में इसे मैक्सिमम लिमिट वाली रकम पर वसूला जाने लगा। इस साल से डिस्ट्रीब्यूटर्स को दिए जाने वाले कमीशन को भी सर्विस टैक्स के दायरे में लाया गया है। यह अलग ही स्टोरी है। इन खर्चों के अलावा इनवेस्टर्स पर एक और कॉस्ट का बोझ डाला जाता है। 2012 में सेबी ने छोटे शहरों के इनवेस्टर्स को म्यूचुअल फंड इंडस्ट्री से जोड़ने के लिए इनसेंटिव सिस्टम शुरू किया था। उसकी वजह यह थी कि म्यूचुअल फंड्स का बाजार सिर्फ कुछ बड़े शहरों तक सिमटा हुआ था। हालांकि, यह बात अधिकतर फाइनेंशियल प्रॉडक्ट्स पर फिट बैठती है। इस इनसेंटिव सिस्टम के तहत म्यूचुअल फंड्स को छोटे शहरों से जुटाई गई रकम के आधार पर और फीस वसूलने की इजाजत दी गई थी। मिसाल के लिए अगर किसी फंड में 30 पर्सेंट नया पैसा टॉप 15 शहरों के बाहर से आता है तो फंड पूरी रकम पर और 0.3 पर्सेंट फीस वसूल सकता है। 25 पर्सेंट के लिए यह 0.25 पर्सेंट, 20 पर्सेंट के लिए 0.2 पर्सेंट और इस तरह से फीस तय की गई है। 2012 में म्यूचुअल फंड इंडस्ट्री सुस्ती के दौर से गुजर रही थी। तब बाजार का दायरा बढ़ाने के लिए इस तरह के इनसेंटिव में कोई गलती नहीं थी। हालांकि, अब हालात बदल गए हैं। अभी इस इनसेंटिव सिस्टम के चलते इनवेस्टर्स पर काफी बोझ पड़ रहा है। कई हजार करोड़ के फंड मैनेज करने वालीं एसेट मैनेजमेंट कंपनियां छोटे शहरों में कस्टमर्स बढ़ाने की कुछ कोशिश करके काफी एक्सट्रा पैसा जुटा सकती हैं। अब वक्त आ गया है कि सेबी देखे कि इस इनसेंटिव के लिए कितना एक्सट्रा पैसा इनवेस्टर्स से लिया जा रहा है और इसके क्या फायदे हुए हैं। अभी शेयर बाजार का परफॉर्मेंस अच्छा है। इसलिए 2 पर्सेंट या 3 पर्सेंट फीस पर इनवेस्टर्स की नजर नहीं जाएगी। हालांकि, लॉन्ग टर्म में वे बड़ी रकम फीस के तौर पर चुकाएंगे। याद रखिए कि कुल एसेट्स के पर्सेंटेज टर्म में एक्सपेंस का जिक्र किया जाता है। हालांकि, इनवेस्टर्स के लिए रिटर्न की तुलना में उनका साइज मैटर करता है। एक उदाहरण लीजिए। मान लीजिए कि कोई इक्विटी फंड 10 साल से अधिक समय में एक्सपेंस से पहले 15 पर्सेंट का सालाना रिटर्न जेनरेट करता है। अगर इस दौरान इसका खर्च 3 पर्सेंट के बजाय 2 पर्सेंट है तो इसका मतलब यह है कि इनवेस्टर्स को 12 पर्सेंट रिटर्न अधिक मिलेगा। वहीं, 2 पर्सेंट एक्सपेंस भी कम नहीं है। भारत में सबसे सस्ता इक्विटी फंड, क्वांटम लॉन्ग टर्म इक्विटी फंड है। यह 1.25 पर्सेंट फीस लेता है। इसकी तुलना में 3 पर्सेंट खर्च का मतलब 20 पर्सेंट कम रिटर्न है। इंडेक्स या ईटीएफ फंड तो इससे भी सस्ते होते हैं। ऐसे ज्यादातर फंड्स 0.5 पर्सेंट फीस लेते हैं। 3 पर्सेंट फीस से तुलना करने पर 10 साल में इनसे 27 पर्सेंट अधिक रिटर्न मिलेगा।
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