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सरकार है सबसे बड़ी मिस-सेलर

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[ उमा शशिकांत ]

डिसइनवेस्टमेंट के फैसले अक्सर मार्केट टाइमिंग, प्राइसिंग और डिस्ट्रीब्यूशन के कन्फ्यूजन में घिरे होते हैं। इन फैसलों की जटिलता के चलते सरकारी माहौल ऐसा हो जाता है कि फैसलों के फायदे उस पर ही सवालिया निशान लगा देते हैं। बड़े और अच्छे मकसद की आड़ आसान रणनीति होती है। PSU शेयरों की सेल रिटेल इनवेस्टर्स का पार्टिसिपेशन बढ़ाने की कवायद बताई जाती है।

इस प्रॉब्लम को सही फ्रेम में देखने की कोशिश करते हैं। पहला, सरकार के खर्च रूटीन टैक्स रेवेन्यू से पूरे नहीं हो रहे। इसलिए वह पब्लिक कंपनियों के शेयर बेचकर पैसे जुटाने को बेताब है। इसमें हमारे लिए अच्छी या भलाई वाली चीज क्या है? दूसरा, सरकार उन कंपनियों में बिजनेस मैनेजर का रोल छोड़ने को तैयार नहीं है, जिसमें वह स्टेक बेचना चाहती है। इसलिए उसे प्राइवेटाइजेशन के बजाय डिसइनवेस्टमेंट कहा जाता है। इसलिए पीएसयू शेयरों के बायर्स खुद को कंपनी के ओनर की तरह नहीं देखते। उस पर मालिकाना हक तो सरकार का ही होगा। रिटेल इनवेस्टर्स का हक सिर्फ प्रॉफिट पर होगा। मैनेजमेंट में दखल नहीं होगा। ऐसे में ये मैनेजमेंट कंट्रोल चाहने वाले इंस्टीट्यूशनल इनवेस्टर्स के बजाय आसान टारगेट होते हैं। तीसरा, रिटेल इनवेस्टर्स का यह सेगमेंट इक्विटी इनवेस्टमेंट नहीं है। उसकी दिलचस्पी तो गोल्ड, रियल एस्टेट, बैंक डिपॉजिट, पीएफ और इंश्योरेंस में होती है।

आइए देखते हैं कि इस फ्रेमवर्क के हिसाब से सरकार प्रॉब्लम के बारे में क्या सोचती है। पहला, सरकार को लगता है कि सेल का टाइम सही रखना चाहिए। यह भाव मार्केट के टॉप पर सेलिंग में पहले मिली कामयाबी से आता है। असल में सही वक्त के इंतजार में फिस्कल के अंत पर अफरातफरी में टारगेट मिस कर जाता है। दूसरा, सरकार यह समझ नहीं पाती कि उसकी सेल से फाइनेंशियल सिस्टम में कैश की कमी हो सकती है। 2010 में कोल इंडिया के IPO में वक्त सही लगा, लेकिन उससे मार्केट धराशायी हो गया। बड़ा सेलर होने की वजह से यह सही वक्त और सही कीमत का फायदा नहीं पा सकता। तीसरा, वह लोगों की इस सोच का फायदा उठाना चाहती है कि सरकारी सेल में नुकसान नहीं होगा। सरकार को ज्यादा लोगों तक पहुंचने के लिए कीमत या टैक्स में डिस्काउंट देना होता है। यह अवसरवादी और शातिर मिस सेलिंग है, जो आरोप सरकार दूसरों पर लगाती रही है।

डिसइनवेस्टमेंट महज पीएसयू शेयरों की सेल है और जो इनवेस्टर को इश्यू की मेरिट और फाइनेंशियल पर खरीदारी करनी चाहिए। इक्विटी मार्केट कॉरपोरेट कंट्रोल का मार्केट है। मतलब कंपनी का परफॉर्मेंस एसेट और प्रॉफिट ही नहीं, मैनेजमेंट पर भी डिपेंड करता है। अगर इनवेस्टर्स को लगता है कि मैनेजमेंट कंट्रोल में चेंज से रिटर्न ऑन एसेट बेहतर हो सकता है तो वे इसके लिए वोटिंग राइट्स का इस्तेमाल करते हैं। पीएसयू इनवेस्टर्स के पास यह राइट नहीं होता क्योंकि मेजॉरिटी स्टेक सरकार के पास होता है। इसलिए PSU इक्विटी कॉन्सेप्ट के हिसाब से लो क्वॉलिटी की होती है। सरकार बिना मैनेजमेंट कंट्रोल छोड़े PSU बैंक में शेयर बेचने का प्लान बनाती है जबकि इनवेस्टर्स को लगता है कि बैंकों को जरूरत मैनेजमेंट चेंज की है। इस फिस्कल ईयर में सरकार का डिसइनवेस्टमेंट से 69,500 करोड़ जुटाने का प्लान है। डिसइनवेस्टमेंट सेक्रेटरी बताती हैं कि इसका मूल उद्देश्य रेवेन्यू बढ़ाना है। वह यह भी बताती हैं कि प्रॉब्लम डिमांड साइड की है क्योंकि उसमें बड़ी सेल को झेलने की क्षमता नहीं है। इसलिए बैंक एकाउंट के लिए जन धन योजना की तरह ही डीमैट एकाउंट्स बढ़ाने के प्रपोजल पर चर्चा हो रही है। इनवेस्टर्स को वेल्थ क्रिएशन को इक्विटी सेविंग्स के लिए बढ़ावा दिया जाना सही नहीं है।

(लेखिका सेंटर फॉर इनवेस्टमेंट एजुकेशन एंड लर्निंग की मैनेजिंग डायरेक्टर हैं)

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