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फिक्स्ड इनकम ही चाहिए तो क्यों न बैंक FD के बजाय MF में लगाएं पैसा?

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धीरेंद्र कुमार
रिजर्व बैंक ने रीपो रेट में लगातार हो रही कटौती पर पिछली मीटिंग में लगाम लगा दी जबकि बाजार अहम पॉलिसी रेट में कटौती किए जाने की उम्मीद कर रहा था। हमेशा की तरह जब भी ऐसा कुछ होता है तब इंटरेस्ट रेट, महंगाई और इकनॉमिक ग्रोथ को लेकर चर्चा का दौर हो जाता है। ऐसा पिछले एक दशक से हो रहा है। ऐसी चर्चा के दौर से लोगों को न फायदा होता है और न ही इससे उनका मनोरंजन होता है। निराशाजनक बात यह रही कि पहले की तरह ही इस बार भी चर्चाओं में इंटरेस्ट रेट को छोटी बचत वाले निवेशकों की बड़ी आबादी की निवेश आय को प्रभावित करने वाले कारक के तौर पर कम तवज्जो दी गई।

ठीक है, फिलहाल हम कुछ समय के लिए ग्रोथ और इन्फलेशन में संतुलन बनाने की बात भूल जाते हैं और पहले कम इंटरेस्ट रेट से होने वाले असर पर गौर करते हैं। इससे लेंडर्स की आमदनी में गिरावट आती है और बॉरोअर्स के लिए उधार लेना सस्ता हो जाता है। क्या आप बता सकते हैं कि देश का सबसे बड़ा बॉरोअर कौन है? स्वाभाविक तौर पर आपका जवाब होगा: भारत सरकार। और सबसे बड़ा लेंडर कौन? देश की जनता, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से।

पढ़ेंः सीनियर सिटिजन्स सेविंग्स स्कीम 2019 की खास बातें

फिक्स्ड इनकम वालों का देश का भारत
बचत के मामले में भारत काफी हद तक फिक्स्ड इनकम वालों का देश है। करोड़ों लोग अपनी बचत बैंकों के FD, PPF, पोस्ट ऑफिस डिपॉजिट वगैरह में जमा कराते हैं। लोगों की बचत का पैसा बैंकिंग सिस्टम के जरिए सरकार और कंपनियों को मिलता है। ऐसे में आप समझ ही सकते हैं कि इंटरेस्ट रेट कम होने से बचतकर्ताओं पर क्या असर होता है। बचतकर्ताओं को कन्ज्यूमर प्राइस इंडेक्स बेस्ड इन्फ्लेशन के मुकाबले कम से कम दो या तीन पर्सेंटेज पॉइंट ज्यादा रियल रेट ऑफ रिटर्न की जरूरत होती है। जब रिटेल रेट मिसाल के तौर पर 7% से घटाकर 6.5% किया जाता है तो उनकी आमदनी 8% घट जाती है।

है कोई कारगर समाधान?
बदकिस्मती से इस समस्या का ऐसा कोई कारगर समाधान नहीं है, जिसमें इक्विटी शामिल नहीं हो लेकिन जीवनभर डिपॉजिट में भरोसा और इक्विटी पर अविश्वास करने वाले ज्यादातर रिटायर्ड लोग यह नहीं समझ पाते। अच्छे-खासे कंजर्वेटिव हाइब्रिड फंड में तीन से पांच साल या ज्यादा समय के लिए निवेश करके इस समस्या का समाधान निकाला जा सकता है। हालांकि, इन्वेस्टमेंट की वैल्यू में उतार-चढ़ाव को लेकर अपने दिमाग में खड़ी हुई मनोवैज्ञानिक दीवार से पार पाना बुजुर्ग निवेशकों के लिए आसान नहीं होता।

पढ़ेंः MF यूनिट्स पर कैसे ले सकते हैं कर्ज, क्या फायदा?
रिटर्न पर नजर

मैंने देखा है कि नई उम्र के निवेशकों, मिसाल के लिए ELSS में पैसा लगाने वालों को ऐसे उतार-चढ़ाव की आदत पड़ गई है। यहां उन्हें यह सबक मिलता है कि इक्विटी ओरिएंटेड फंड में भले ही उतार-चढ़ाव होता हो लेकिन अंत में उनसे मिलने वाला रिटर्न खासा बड़ा होता है। यह सबक उम्र हो जाने पर सीखा नहीं जा सकता लेकिन फिक्स्ड इनकम सोर्सेज से चिपके रहने से ऐसे बचतकर्ताओं को म्यूचुअल फंड्स से दूसरा सबक मिलता है कि टैक्स एफिशिएंसी काफी मायने रखती है।

रिटर्न के साथ दूसरे फायदे भी
म्यूचुअल फंड में निवेश करने से रिटर्न के साथ दूसरे फायदे भी मिलते हैं। टैक्सेशन स्ट्रक्चर अलग होने से अलग-अलग स्लैब वाले निवेशकों को टैक्स चुकाने के बाद मिलनेवाला रिटर्न अलग होता है। टैक्स देनदारी में अंतर इसलिए आता है कि फिक्स्ड डिपॉजिट से हासिल होनेवाली रकम इंटरेस्ट इनकम मानी जाती है जबकि म्यूचुअल फंड का रिटर्न कैपिटल गेंस माना जाता है। इंटरेस्ट इनकम होने पर आपको आमदनी वाले हर साल में टैक्स चुकाना होगा। अगर सभी बैंक एकाउंट और डिपॉजिट्स से हासिल होनेवाली इंटरेस्ट इनकम 10,000 सालाना से ज्यादा होती है तो बैंक उस पर 10% के रेट से TDS काटते हैं। अगर आपने बैंक में PAN नहीं दिया है तो TDS 20% कटेगा।

दूसरे फायदे भी
म्यूचुअल फंड में तीन साल से ज्यादा समय तक पैसा लगाए रखने पर निवेशकों को दूसरा फायदा भी मिलता है। अगर आप तीन साल बाद MF स्कीम रिडीम कराते हैं तो उससे हासिल रिटर्न लॉन्ग टर्म कैपिटल गेंस माना जाएगा और उस पर इंडेक्सेशन का फायदा मिलेगा। आपको इसमें इन्फ्लेशन के हिसाब से अजस्ट किए गए रिटर्न पर टैक्स देना होगा, जो FD में नहीं होता। अगर तीन साल से पहले MF स्कीम की यूनिट रिडीम कराई जाती है तो भी इनका रिटर्न इतनी ही अवधि के FD के मुकाबले लगभग दोगुना होता है।

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