किरण काब्ता सोमवंशी, नई दिल्ली
पेनी स्टॉक्स तो खराब होते ही हैं। स्मॉल और मिड कैप शेयरों से अधिक रिटर्न मिलने का चांस तो होता है, लेकिन उनके साथ जोखिम भी ज्यादा होता है। इस तरह अधिकतर निवेशकों की नजर ब्लू चिप स्टॉक्स पर टिक जाती है। सवाल अब यह है कि इन कंपनियों के भी गवर्नेंस के मुद्दे पर फंस जाने के कारण जब इनके शेयर गिरने लगें तो क्या किया जाए? सन फार्मा, आईसीआईसीआई बैंक, आईएलऐंडएफएस ग्रुप कंपनियों, यस बैंक और फोर्टिस हेल्थकेयर के निवेशकों को यह परेशानी ज्यादा समझ में आएगी।
दरअसल जब बड़ी कंपनियां गवर्नेंस के मसले पर फंसती हैं तो निवेशकों के सामने ज्यादा विकल्प भी नहीं होते। हालांकि असल में लड़खड़ाने से पहले गवर्नेंस के गिरते स्टैंडर्ड्स के बड़े संकेत सामने आ जाते हैं। शेयरधारकों को ऐसे संकेतों पर नजर रखनी ही चाहिए और समय पर उस शेयर से किनारा कर लेना चाहिए। चीफ फाइनैंशल ऑफिसर या कंपनी सेक्रटरी के कंपनी छोड़ने, इंडिपेंडेंट डायरेक्टरों या ऑडिटरों के इस्तीफे और रेग्युलेटरी इंस्पेक्शन या सेटलमेंट जैसे कुछ बेहद साफ घटनाक्रम होते हैं, जिनकी बारीकी से पड़ताल करनी चाहिए।
गवर्नेंस से जुड़े कुछ मुद्दे पूरी इंडस्ट्री से संबंधित भी हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, लगभग सभी बड़ी दवा कंपनियों को उनके कारखानों की जांच के बाद यूएसएफडीए से प्रतिकूल टिप्पणियां मिलीं जिससे पता चलता है कि दवाएं बनाने के मानकों का कड़ाई से पालन नहीं किया जा रहा। कई कंपनियों के बोर्ड्स में शामिल इंडिपेंडेंट डायरेक्टर मिलिंद सरवटे ने कहा, 'गवर्नेंस की जमीन हिलने का एक बड़ा संकेत यही होता है कि कंपनी के टॉप अफसरों के इर्दगिर्द पर्सनल रिलेशंस के बेतुके अभियान ज्यादा दिखने लगते हैं, जबकि सामान्य तौर पर बिजनस या कॉर्पोरेट इकाई के लिए पीआर होता है।' उन्होंने कहा, 'व्यक्ति पूजा से कुशासन को छिपाने की कोशिश की जाती है, लेकिन आखिरकार शीराजा बिखर ही जाता है।'
उन्होंने कहा कि जब किसी कंपनी में सभी लोग प्रमोटर या सीईओ की वाहवाही करने लगें तो निश्चित रूप से उनकी नजर गवर्नेंस से हट जाती है। कोटक महिंद्रा एएमसी के नीलेश शाह ने कहा, 'निवेशकों को किसी कंपनी के शेयर के लिए इसलिए ही ज्यादा पैसा नहीं देना चाहिए कि वह कॉर्पोरेट गवर्नेंस के मामले में अच्छी है। इसी तरह अगर बैड गवर्नेंस का असर स्टॉक वैल्यू में शामिल हो चुका हो, तो उस शेयर से किनारा नहीं करना चाहिए।' देखा यही गया है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के शेयर उनकी स्थानीय प्रतिद्वंद्वी कंपनियों के शेयरों से प्रीमियम पर ट्रेड करते हैं और ऐसा इस धारणा के कारण भी होता है कि उनका गवर्नेंस और रिपोर्टिंग स्टैंडर्ड बेहतर होता है।
शाह ने निवेशकों को सलाह दी कि गवर्नेंस का मसला सार्वजनिक होने के बाद बदलते हालात पर वे नजर रखें और यह देखें कि प्रमोटर या मैनेजमेंट बदलाव करना चाहता है या नहीं और बैड गवर्नेंस का असर स्टॉक वैल्यू में किस हद तक शामिल हो चुका है। शाह ने कहा कि मैक्सिमम वैल्यू तब क्रिएट होती है, जब बदतर हालात बेहतर हो जाते हैं। उन्होंने कहा, 'हालांकि ऐसा खुद ब खुद नहीं होता है। इसके लिए निवेशकों को कंपनी मैनेजमेंट पर लगातार दबाव बनाना पड़ता है ताकि गवर्नेंस का वांछित मानक हासिल किया जा सके।'
एक्सपर्ट्स का मानना है कि छोटी कंपनियों के गवर्नेंस के मसलों में फंसने के बजाय बड़ी कंपनियों के इसमें घिरने में कुछ अच्छी बात भी है। इक्विनॉमिक्स रिसर्च के जी चोक्कालिंगम ने कहा, 'निवेशकों को मैनेजमेंट क्वॉलिटी, कर्ज की स्थिति, वर्किंग कैपिटल पर दबाव और वैल्यूएशन कंफर्ट जैसी चार बातों पर ध्यान देना चाहिए।' इनमें से किसी भी मानक के साथ अगर कोई समस्या हो और उससे गवर्नेंस का मसला भी जुड़ जाए तो तबाही का सामान बन जाता है, खासतौर से स्मॉल ऐंड मिड कैप्स के मामले में। चोक्कालिंगम ने कहा, 'जब दमदार फंडामेंटल्स वाले ब्लू चिप स्टॉक्स के सामने गवर्नेंस का मसला आता है तो यह मसला हल होने के बाद नुकसान की भरपाई होने का चांस भी अपेक्षाकृत ज्यादा रहता है।'
पेनी स्टॉक्स तो खराब होते ही हैं। स्मॉल और मिड कैप शेयरों से अधिक रिटर्न मिलने का चांस तो होता है, लेकिन उनके साथ जोखिम भी ज्यादा होता है। इस तरह अधिकतर निवेशकों की नजर ब्लू चिप स्टॉक्स पर टिक जाती है। सवाल अब यह है कि इन कंपनियों के भी गवर्नेंस के मुद्दे पर फंस जाने के कारण जब इनके शेयर गिरने लगें तो क्या किया जाए? सन फार्मा, आईसीआईसीआई बैंक, आईएलऐंडएफएस ग्रुप कंपनियों, यस बैंक और फोर्टिस हेल्थकेयर के निवेशकों को यह परेशानी ज्यादा समझ में आएगी।
दरअसल जब बड़ी कंपनियां गवर्नेंस के मसले पर फंसती हैं तो निवेशकों के सामने ज्यादा विकल्प भी नहीं होते। हालांकि असल में लड़खड़ाने से पहले गवर्नेंस के गिरते स्टैंडर्ड्स के बड़े संकेत सामने आ जाते हैं। शेयरधारकों को ऐसे संकेतों पर नजर रखनी ही चाहिए और समय पर उस शेयर से किनारा कर लेना चाहिए। चीफ फाइनैंशल ऑफिसर या कंपनी सेक्रटरी के कंपनी छोड़ने, इंडिपेंडेंट डायरेक्टरों या ऑडिटरों के इस्तीफे और रेग्युलेटरी इंस्पेक्शन या सेटलमेंट जैसे कुछ बेहद साफ घटनाक्रम होते हैं, जिनकी बारीकी से पड़ताल करनी चाहिए।
गवर्नेंस से जुड़े कुछ मुद्दे पूरी इंडस्ट्री से संबंधित भी हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, लगभग सभी बड़ी दवा कंपनियों को उनके कारखानों की जांच के बाद यूएसएफडीए से प्रतिकूल टिप्पणियां मिलीं जिससे पता चलता है कि दवाएं बनाने के मानकों का कड़ाई से पालन नहीं किया जा रहा। कई कंपनियों के बोर्ड्स में शामिल इंडिपेंडेंट डायरेक्टर मिलिंद सरवटे ने कहा, 'गवर्नेंस की जमीन हिलने का एक बड़ा संकेत यही होता है कि कंपनी के टॉप अफसरों के इर्दगिर्द पर्सनल रिलेशंस के बेतुके अभियान ज्यादा दिखने लगते हैं, जबकि सामान्य तौर पर बिजनस या कॉर्पोरेट इकाई के लिए पीआर होता है।' उन्होंने कहा, 'व्यक्ति पूजा से कुशासन को छिपाने की कोशिश की जाती है, लेकिन आखिरकार शीराजा बिखर ही जाता है।'
उन्होंने कहा कि जब किसी कंपनी में सभी लोग प्रमोटर या सीईओ की वाहवाही करने लगें तो निश्चित रूप से उनकी नजर गवर्नेंस से हट जाती है। कोटक महिंद्रा एएमसी के नीलेश शाह ने कहा, 'निवेशकों को किसी कंपनी के शेयर के लिए इसलिए ही ज्यादा पैसा नहीं देना चाहिए कि वह कॉर्पोरेट गवर्नेंस के मामले में अच्छी है। इसी तरह अगर बैड गवर्नेंस का असर स्टॉक वैल्यू में शामिल हो चुका हो, तो उस शेयर से किनारा नहीं करना चाहिए।' देखा यही गया है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के शेयर उनकी स्थानीय प्रतिद्वंद्वी कंपनियों के शेयरों से प्रीमियम पर ट्रेड करते हैं और ऐसा इस धारणा के कारण भी होता है कि उनका गवर्नेंस और रिपोर्टिंग स्टैंडर्ड बेहतर होता है।
शाह ने निवेशकों को सलाह दी कि गवर्नेंस का मसला सार्वजनिक होने के बाद बदलते हालात पर वे नजर रखें और यह देखें कि प्रमोटर या मैनेजमेंट बदलाव करना चाहता है या नहीं और बैड गवर्नेंस का असर स्टॉक वैल्यू में किस हद तक शामिल हो चुका है। शाह ने कहा कि मैक्सिमम वैल्यू तब क्रिएट होती है, जब बदतर हालात बेहतर हो जाते हैं। उन्होंने कहा, 'हालांकि ऐसा खुद ब खुद नहीं होता है। इसके लिए निवेशकों को कंपनी मैनेजमेंट पर लगातार दबाव बनाना पड़ता है ताकि गवर्नेंस का वांछित मानक हासिल किया जा सके।'
एक्सपर्ट्स का मानना है कि छोटी कंपनियों के गवर्नेंस के मसलों में फंसने के बजाय बड़ी कंपनियों के इसमें घिरने में कुछ अच्छी बात भी है। इक्विनॉमिक्स रिसर्च के जी चोक्कालिंगम ने कहा, 'निवेशकों को मैनेजमेंट क्वॉलिटी, कर्ज की स्थिति, वर्किंग कैपिटल पर दबाव और वैल्यूएशन कंफर्ट जैसी चार बातों पर ध्यान देना चाहिए।' इनमें से किसी भी मानक के साथ अगर कोई समस्या हो और उससे गवर्नेंस का मसला भी जुड़ जाए तो तबाही का सामान बन जाता है, खासतौर से स्मॉल ऐंड मिड कैप्स के मामले में। चोक्कालिंगम ने कहा, 'जब दमदार फंडामेंटल्स वाले ब्लू चिप स्टॉक्स के सामने गवर्नेंस का मसला आता है तो यह मसला हल होने के बाद नुकसान की भरपाई होने का चांस भी अपेक्षाकृत ज्यादा रहता है।'
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