निशांत वासुदेवन
जो लोग कई दशक से बाजार में पैसा लगा रहे हैं, वे कहते हैं कि बुल मार्केट के बजाय बेयर मार्केट में वे ज्यादा चीजें सीखते हैं। आखिरकार, इनवेस्टिंग का मतलब सिर्फ वेल्थ क्रिएशन नहीं होता बल्कि कमाई गई दौलत को बचाकर रखना भी इसका हिस्सा है। जब बाजार में तेजी का दौर होता है तो ज्यादातर निवेशक खूब पैसे बनाते हैं। वहीं, बड़ा करेक्शन आने पर उनके हाथ से मुनाफे का एक हिस्सा निकल जाता है। इस बार भी वही हुआ है। चार साल के बुल रन के बाद कई इनवेस्टर्स का 2018 में दम फूल गया। लोग अब बाजार में पैसा लगाने से घबरा रहे हैं। निवेशक इस वक्त अपने पोर्टफोलियो के परफॉर्मेंस पर नजर डाल रहे हैं। वहीं, मनी मैनेजरों का कहना है कि निवेश को असरदार बनाने के लिए उन्हें अपनी कुछ आदतों पर नजर डालनी चाहिए।
मार्केट साइकल
फंड मैनेजरों का कहना है कि मार्केट साइक्लिकल होता है यानी कभी इसमें तेजी का दौर आता है तो कभी मंदी का। इसका मतलब यह है कि हर शेयर या सेक्टर या थीम का कभी अच्छा दौर आता है तो कभी बुरा। लंबी तेजी के बाद अक्सर मार्केट में डल पीरियड आता है। इसकी सबसे अच्छी मिसाल एनबीएफसी और मिड व स्मॉल कैप शेयर हैं। एनबीएफसी हालिया बुल रन की स्टार थीं। पिछले चार साल में इस सेगमेंट की करीब-करीब हर कंपनी का शेयर प्राइस डबल हो गया था। इनमें गिरावट आने का मतलब है कि फिलहाल के लिए पार्टी खत्म हो गई है। अभी निवेशकों को एनबीएफसी में एग्रेसिव ढंग से निवेश नहीं करना चाहिए। उन्हें सेक्टर की परेशानियों के खत्म होने का इंतजार करना चाहिए। एनबीएफसी के हालिया पीक पर जाने की संभावना हाल-फिलहाल तो नहीं है।
टेक्नॉलजी और इंफ्रास्ट्रक्चर शेयरों को लीजिए। इनमें से ज्यादातर बुलबुला फूटने के बाद कभी भी पहले वाली चमक हासिल नहीं कर पाए। कई मिड और स्मॉल कैप शेयरों को 2007-08 के पीक लेवल तक जाने में कम से कम 6 साल का समय लगा था।
ऑप्शंस सेलिंग
हालिया बुल रन में साहसी रिटेल ट्रेडर्स की दिलचस्पी इसमें काफी बढ़ गई थी, लेकिन हाल के महीनों में उनमें से कइयों को बड़ा नुकसान उठाना पड़ा है। ऑप्शन बेचने वाला बायर की काउंटरपार्टी होता है। इसका मतलब यह है कि एक ऑप्शन बायर सेलर से उसे खरीदने के लिए प्रीमियम का भुगतान करता है। वह प्रीमियम सेलर की जेब में जाता है। थ्योरी में सेलर के लिए अनलिमिटेड रिस्क होता है। शेयर बाजार में जब सब कुछ नॉर्मल था, तब कई रिटेल ट्रेडर्स ऑप्शंस बेच रहे थे क्योंकि प्रीमियम ऊंचा नहीं था। जब मार्केट का रिस्क बढ़ता है तो ऑप्शन के प्रीमियम में भी बढ़ोतरी होती है। हालिया बिकवाली में रिटेल ट्रेडर्स पर यह दांव उलटा पड़ गया। जो ट्रेडर हाल में इस स्ट्रैटेजी से पैसा बना रहे थे, उन्होंने शुरुआती वोलैटिलिटी के बाद और ऑप्शन बेचे। उन्हें लगा कि बाजार का उतार-चढ़ाव जल्द खत्म हो जाएगा। जिन लोगों ने शेयर पोर्टफोलियो को मार्जिन रखा हुआ था, उन्हें इस घाटे की भरपाई के लिए अपनी कुछ लॉन्ग टर्म होल्डिंग भी बेचनी पड़ी है। ब्रोकरों का कहना है कि कई रिटेल ट्रेडर्स ने रिस्क को समझे बिना ऑप्शंस बेचे थे। यह बात सच है कि ऑप्शन सेलर, ऑप्शन बायर से अधिक पैसे बनाते हैं, लेकिन यह नए इनवेस्टर्स के लिए नहीं है।
पोर्टफोलियो डायवर्सिफिकेशन
जब बाजार की हालत खराब होगी तो इनवेस्टमेंट पोर्टफोलियो पर उसका असर पड़ना तय है। हालांकि, कई बार आप अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार बैठते हैं। रिस्क कम करने के लिए कई निवेशक आमतौर पर शेयर या म्यूचुअल फंड की जरूरत से अधिक खरीदारी कर बैठते हैं। इससे उनके रिटर्न में कमी आती है। यह बात खासतौर पर म्यूचुअल फंड निवेशकों के लिए सही है, जो हर कैटेगरी में दो या तीन स्कीम में निवेश करते हैं। उन्हें लगता है कि इससे उनका पोर्टफोलियो डायवर्सिफाई हो रहा है। इस प्रोसेस में वे मार्केट के बड़े हिस्से पर दांव लगा बैठते हैं, जिससे पोर्टफोलियो के अंडरपरफॉर्मेंस की आशंका बढ़ जाती है। निवेशकों को बाजार की हालिया कमजोरी का फायदा उठाकर अपने पोर्टफोलियो को संतुलित बनाना चाहिए।
फिक्स्ड इनकम एलोकेशन
अब तक निवेशकों को समझ में आ गया होगा कि कुछ पैसा फिक्स्ड इनकम या डेट प्रॉडक्ट्स में लगाना कितना जरूरी है। कई फर्स्ट टाइम इनवेस्टर्स ने हालिया बुल रन में सारा पैसा शेयरों में लगा दिया था। वेल्थ मैनेजरों को लगता है कि यह रिस्की हो सकता है। यह बात सही है कि वेल्थ क्रिएशन के लिए स्टॉक्स में एग्रेसिव इनवेस्टमेंट जरूरी है, लेकिन मुश्किल वक्त के लिए डेट प्रॉडक्ट्स में भी कुछ पैसा जरूर लगाना चाहिए।
जो लोग कई दशक से बाजार में पैसा लगा रहे हैं, वे कहते हैं कि बुल मार्केट के बजाय बेयर मार्केट में वे ज्यादा चीजें सीखते हैं। आखिरकार, इनवेस्टिंग का मतलब सिर्फ वेल्थ क्रिएशन नहीं होता बल्कि कमाई गई दौलत को बचाकर रखना भी इसका हिस्सा है। जब बाजार में तेजी का दौर होता है तो ज्यादातर निवेशक खूब पैसे बनाते हैं। वहीं, बड़ा करेक्शन आने पर उनके हाथ से मुनाफे का एक हिस्सा निकल जाता है। इस बार भी वही हुआ है। चार साल के बुल रन के बाद कई इनवेस्टर्स का 2018 में दम फूल गया। लोग अब बाजार में पैसा लगाने से घबरा रहे हैं। निवेशक इस वक्त अपने पोर्टफोलियो के परफॉर्मेंस पर नजर डाल रहे हैं। वहीं, मनी मैनेजरों का कहना है कि निवेश को असरदार बनाने के लिए उन्हें अपनी कुछ आदतों पर नजर डालनी चाहिए।
मार्केट साइकल
फंड मैनेजरों का कहना है कि मार्केट साइक्लिकल होता है यानी कभी इसमें तेजी का दौर आता है तो कभी मंदी का। इसका मतलब यह है कि हर शेयर या सेक्टर या थीम का कभी अच्छा दौर आता है तो कभी बुरा। लंबी तेजी के बाद अक्सर मार्केट में डल पीरियड आता है। इसकी सबसे अच्छी मिसाल एनबीएफसी और मिड व स्मॉल कैप शेयर हैं। एनबीएफसी हालिया बुल रन की स्टार थीं। पिछले चार साल में इस सेगमेंट की करीब-करीब हर कंपनी का शेयर प्राइस डबल हो गया था। इनमें गिरावट आने का मतलब है कि फिलहाल के लिए पार्टी खत्म हो गई है। अभी निवेशकों को एनबीएफसी में एग्रेसिव ढंग से निवेश नहीं करना चाहिए। उन्हें सेक्टर की परेशानियों के खत्म होने का इंतजार करना चाहिए। एनबीएफसी के हालिया पीक पर जाने की संभावना हाल-फिलहाल तो नहीं है।
टेक्नॉलजी और इंफ्रास्ट्रक्चर शेयरों को लीजिए। इनमें से ज्यादातर बुलबुला फूटने के बाद कभी भी पहले वाली चमक हासिल नहीं कर पाए। कई मिड और स्मॉल कैप शेयरों को 2007-08 के पीक लेवल तक जाने में कम से कम 6 साल का समय लगा था।
ऑप्शंस सेलिंग
हालिया बुल रन में साहसी रिटेल ट्रेडर्स की दिलचस्पी इसमें काफी बढ़ गई थी, लेकिन हाल के महीनों में उनमें से कइयों को बड़ा नुकसान उठाना पड़ा है। ऑप्शन बेचने वाला बायर की काउंटरपार्टी होता है। इसका मतलब यह है कि एक ऑप्शन बायर सेलर से उसे खरीदने के लिए प्रीमियम का भुगतान करता है। वह प्रीमियम सेलर की जेब में जाता है। थ्योरी में सेलर के लिए अनलिमिटेड रिस्क होता है। शेयर बाजार में जब सब कुछ नॉर्मल था, तब कई रिटेल ट्रेडर्स ऑप्शंस बेच रहे थे क्योंकि प्रीमियम ऊंचा नहीं था। जब मार्केट का रिस्क बढ़ता है तो ऑप्शन के प्रीमियम में भी बढ़ोतरी होती है। हालिया बिकवाली में रिटेल ट्रेडर्स पर यह दांव उलटा पड़ गया। जो ट्रेडर हाल में इस स्ट्रैटेजी से पैसा बना रहे थे, उन्होंने शुरुआती वोलैटिलिटी के बाद और ऑप्शन बेचे। उन्हें लगा कि बाजार का उतार-चढ़ाव जल्द खत्म हो जाएगा। जिन लोगों ने शेयर पोर्टफोलियो को मार्जिन रखा हुआ था, उन्हें इस घाटे की भरपाई के लिए अपनी कुछ लॉन्ग टर्म होल्डिंग भी बेचनी पड़ी है। ब्रोकरों का कहना है कि कई रिटेल ट्रेडर्स ने रिस्क को समझे बिना ऑप्शंस बेचे थे। यह बात सच है कि ऑप्शन सेलर, ऑप्शन बायर से अधिक पैसे बनाते हैं, लेकिन यह नए इनवेस्टर्स के लिए नहीं है।
पोर्टफोलियो डायवर्सिफिकेशन
जब बाजार की हालत खराब होगी तो इनवेस्टमेंट पोर्टफोलियो पर उसका असर पड़ना तय है। हालांकि, कई बार आप अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार बैठते हैं। रिस्क कम करने के लिए कई निवेशक आमतौर पर शेयर या म्यूचुअल फंड की जरूरत से अधिक खरीदारी कर बैठते हैं। इससे उनके रिटर्न में कमी आती है। यह बात खासतौर पर म्यूचुअल फंड निवेशकों के लिए सही है, जो हर कैटेगरी में दो या तीन स्कीम में निवेश करते हैं। उन्हें लगता है कि इससे उनका पोर्टफोलियो डायवर्सिफाई हो रहा है। इस प्रोसेस में वे मार्केट के बड़े हिस्से पर दांव लगा बैठते हैं, जिससे पोर्टफोलियो के अंडरपरफॉर्मेंस की आशंका बढ़ जाती है। निवेशकों को बाजार की हालिया कमजोरी का फायदा उठाकर अपने पोर्टफोलियो को संतुलित बनाना चाहिए।
फिक्स्ड इनकम एलोकेशन
अब तक निवेशकों को समझ में आ गया होगा कि कुछ पैसा फिक्स्ड इनकम या डेट प्रॉडक्ट्स में लगाना कितना जरूरी है। कई फर्स्ट टाइम इनवेस्टर्स ने हालिया बुल रन में सारा पैसा शेयरों में लगा दिया था। वेल्थ मैनेजरों को लगता है कि यह रिस्की हो सकता है। यह बात सही है कि वेल्थ क्रिएशन के लिए स्टॉक्स में एग्रेसिव इनवेस्टमेंट जरूरी है, लेकिन मुश्किल वक्त के लिए डेट प्रॉडक्ट्स में भी कुछ पैसा जरूर लगाना चाहिए।
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