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Channel: Mutual Funds in Hindi - म्यूचुअल फंड्स निवेश, पर्सनल फाइनेंस, इन्वेस्टमेंट के तरीके, Personal Finance News in Hindi | Navbharat Times
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न्यू फंड ऑफर्स में इनवेस्टर्स की दिलचस्पी का लॉजिकल बेस नहीं

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मार्केट 2007-08 के पीक पर नहीं है फिर भी इनवेस्टर्स में म्यूचुअल फंड के NFO को लेकर कनफ्यूजन बरकरार है। वैल्यू रिसर्च को इनवेस्टमेंट सलाह के लिए जो ईमेल मिलती हैं, उनमें NFO से बचने की हमारी सलाह पर सवाल उठाने वाले ईमेल का अनुपात बना रहता है। लगता है कि NFO में कभी पैसा नहीं लगाने की हमारी सलाह ज्यादातर लोगों के गले नहीं उतर रही है।

NFO में पैसा नहीं लगाने की सलाह देने की पक्की वजह है। NFO का कोई ट्रैक रिकॉर्ड नहीं होता। फंड अपनी मार्केटिंग में जो चाहे कह लें, उसमें शायद ही कोई चीज जेनुइन होती है। बाजार में उसके जैसे पुराने फंड्स हमेशा ही होते हैं। NFO के मुकाबले पुराना फंड को चेक करना आसान होता है। बस बेस्ट ट्रैक रिकॉर्ड वाला फंड देखकर पैसे लगाना होता है।

NFO को प्रेफरेंस देने का सबसे वाहियात लॉजिक उसका कम NAV पर मिलना होता है। कम NAV वाला फंड ज्यादा NAV वाले से बेहतर होता है, यह सोच भी बेकार है। बदकिस्मती से कुछ फंड्स सेल्समैन NFO बेचने के लिए इस लॉजिक का सहारा लेते हैं। अगर सेल्सपर्सन आपसे कहता है कि कम NAV आपके लिए फायदेमंद है तो समझ लीजिए कि सेलर खुद बेवकूफ है या आपको बेवकूफ बना रहा है।

NAV फंडे को समझने का एक आसान तरीका है। इससे पता चलता है कि लॉन्चिंग के बाद से उसकी कीमत में कितनी बढ़ोतरी हुई है। यह इस बात पर डिपेंड करता है कि फंड मैनेजर इनवेस्टमेंट पोर्टफोलियो में कितना कामयाब रहा है। मिसाल के लिए मान लिया अलग-अलग समय में शुरू लेकिन एक जैसे पोर्टफोलियो वाले दो फंड्स का रिटर्न 20 पर्सेंट सालाना है। इसमें एक साल पुराने फंड का NAV ~12 होगा जबकि दो साल पुराने फंड का NAV ‌‌~14.40 होगा। किसी फंड के NAV की जरूरत उसके पास्ट परफॉर्मेंस से तुलना के अलावा कुछ और नहीं है। दो अलग अलग फंड्स के NAV की तुलना से कोई काम की बात पता चलने की संभावना नहीं होती।

इसके बावजूद NFO गुजरे जमाने की बात नहीं हो जाएगी। सेबी NFO को इजाजत देने में उतना उदार नहीं रह गया है, जितना पिछले दशक में हुआ करता था। लेकिन NFO रिलेटेड कुछ ऐसे चेंज हुए हैं जिनसे इनको जोरशोर से लॉन्च करना और बेचना फायदे का सौदा हो गया है। सबसे बड़ा बदलाव यह हुआ है कि सेबी ने एंट्री लोड खत्म कर दिया है। यह डिस्ट्रीब्यूटर्स को ज्यादा सेल करने के लिए इनवेस्टर्स से वसूल करके दिया जाता था। इसका नतीजा यह हुआ कि क्लोज एंडेड फंड्स फंड हाउस और एडवाइजर्स दोनों के लिए फेवरेट प्रॉडक्ट्स हो गए।

1990 के दशक में बाजार पर राज करने वाले क्लोज एंड इक्विटी फंड्स का नामोनिशान 2010 तक मिट सा गया था। अब उनमें बड़े पैमाने पर रिवाइवल हो रहा है। मिसाल के लिए पिछले साल आए 81 इक्विटी NFO में 57 क्लोज एंड और 24 ओपन एंड थे। इस दौरान लॉन्च हुए क्लोज एंड NFO में 10,138 करोड़ रुपये और ओपन एंडेड फंड्स में 5,049 करोड़ आए थे।

वजह साफ है। क्लोज एंड फंड में लॉकइन रेवेन्यू मिलता है जिससे म्यूचुअल फंड कंपनियां डिस्ट्रीब्यूटर्स को मोटा कमीशन दे सकती हैं। लेकिन इसमें इनवेस्टर्स को दोतरफा नुकसान होता है। वे NFO के जरिए एक तो बिना ट्रैक रिकॉर्ड वाले फंड में पैसा लगा बैठते हैं दूसरा क्लोज एंड फंड होने की वजह से उसमें लगाया गया पैसा लॉक हो जाता है।

धीरेंद्र कुमार, सीईओ वैल्यू रिसर्च

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