[ अनीता भोईर ] जब रिलायंस इंडस्ट्रीज अपनी ट्रिपल ए रेटिंग के साथ किसी बैंक से लोन लेने जाती है तो उसे बेहतरीन डील का यकीन होता है। इससे बेहद कम रेटिंग वाली कंपनी को हो सकता है कि रिलायंस के मुकाबले 5-6 पर्सेंट ज्यादा ब्याज दर पर कर्ज मिले। यह अच्छे क्रेडिट और बुरे क्रेडिट का फर्क है। हालांकि बात जब रिटेल बॉरोअर्स की आती है तो बैंक बॉरोइंग कॉस्ट पर उन्हें यही बेनेफिट नहीं देते, भले ही आवेदक के पास टॉप क्रेडिट स्कोर हो। क्रेडिट इन्फॉर्मेशन ब्यूरो यानी CIBIL बनने के 15 साल से भी ज्यादा समय बाद न तो इंडिविजुअल बॉरोअर्स को अपने अच्छे बर्ताव और दमदार वित्तीय स्थिति का फायदा मिला है और न ही बैंक रिटेल कस्टमर्स से वैसा व्यवहार करते हैं, जैसा वे कंपनियों के मामले में करते हैं। कर्ज चुकाने की रिटेल बॉरोअर्स की क्षमता के आधार पर सिबिल उन्हें 300 से लेकर 900 तक के स्कोर्स देती है। हालांकि ऐसे बॉरोअर्स के स्कोर 600, हों या 890 या 900, वे करीब-करीब एक जैसी ब्याज दर पर लोन पाते हैं। और सिबिल बस यही रटारटाया जुमला दोहराता रहता है, 'जितना ज्यादा आपका क्रेडिट स्कोर होगा, आपके लोन अप्रूवल के उतने ज्यादा चांस होंगे।' रिटेल बॉरोअर्स को दिए गए बैंक लोन का करीब 80 पर्सेंट हिस्सा ऐसे लोगों के नाम है, जिनका क्रेडिट स्कोर 750 से ज्यादा है। यह उसी तरह का मामला है कि लोन केवल सिंगल ए से ट्रिपल ए रेटिंग वाली कंपनियों को दिया जाए। एसबीआई की चेयरपर्सन अरुंधति भट्टाचार्य कहती हैं, 'हम किसी ऐसे रिटेल कस्टमर्स को लोन नहीं देते, जिसका क्रेडिट स्कोर अच्छा न हो। हालांकि अभी हम अच्छे क्रेडिट स्कोर वाले रिटेल बॉरोअर्स को ब्याज दर के मामले में कोई बेनेफिट नहीं देते हैं।' अमेरिका जैसे डिवेलप्ड देशों में क्रेडिट इन्फॉर्मेशन ब्यूरो कस्टमर्स की रैंकिंग प्राइम और सब-प्राइम के रूप में करते हैं। बैंक ऐसी रेटिंग के आधार पर उनसे इंटरेस्ट रेट चार्ज करते हैं और रेटिंग का उपयोग केवल लोन अप्रूव करने में नहीं करते। इंडसइंड बैंक के एमडी और सीईओ रोमेश सोबती ने कहा 'एडवांस्ड इकनॉमीज में ज्यादा रेटिंग वाले कस्टमर्स बेहतर इंटरेस्ट रेट्स की डिमांड करते हैं। इंडिया में बैंक पोर्टफोलियो प्राइसिंग के आधार पर चलते हैं। क्रेडिट स्कोर का इस्तेमाल यहां किसी व्यक्ति को लोन देने या न देने के पैमाने के रूप में ही हो रहा है।' इसकी एक बड़ी वजह यह है कि पश्चिमी देशों की तरह इंडिया में कंज्यूमर एक्टिविज्म में तेजी नहीं आई है और रेगुलेटर भी बैंकों पर यह दबाव नहीं डाल रहा है कि वे कंपनियों और इंडिविजुअल बॉरोअर्स के बीच भेदभाव न करें। फिर कंपनियों को दिया गया मोटा कर्ज डूब सकने की आशंका से घिरे भारतीय बैंक रिटेल कस्टमर्स से ज्यादा चार्ज लेकर अपना नुकसान कुछ कम करते रहे हैं। अश्विन पारेख एडवाइजरी सर्विसेज के मैनेजिंग पार्टनर अश्विन पारेख ने कहा, 'रिटेल कस्टमर्स दरअसल कॉरपोरेट क्लाइंट्स के बदले पेमेंट कर रहे हैं।' मार्च 2015 के अंत तक हाल यह था कि बैंकिंग सेक्टर को कंपनियों को दिए गए लोन के मामले में 50,000 करोड़ रुपये से ज्यादा का नुकसान हो चुका था। बैंकों ने मार्च 2015 के अंत तक 2,86,405 करोड़ रुपये के लोन के रीपेमेंट की शर्तें नरम की थीं। पिछले साल की इसी अवधि में यह आंकड़ा 2,42,259 करोड़ रुपये का था। लोन पर डिफॉल्ट करने वाली कंपनियों में भारती शिपयार्ड, एबीजी शिपयार्ड, जीटीएल, एस्सार स्टील, स्टर्लिंग ऑयल रिसोर्सेज, केएस ऑयल, डेक्कन क्रॉनिकल और किंगफिशर एयरलाइंस शामिल थीं। आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन ने कहा था कि लोन देने में सही फैसला न करने और डूब सकने वाले लोन की एक के बाद एक रिस्ट्रक्चरिंग की हरकत अंत में उन लोगों को दिक्कत देगी, जो सही वक्त पर कर्ज चुकाते रहते हैं क्योंकि उनके लिए कॉस्ट बढ़ जाएगी। ऐसे बैड लोन की बड़ी मात्रा उन वजहों में से एक है, जिनके कारण बैंक लेंडिंग रेट्स कम नहीं करना चाहते हैं, हालांकि आरबीआई ने इस साल कई बार पॉलिसी रेट्स कम किए हैं। एसबीआई, आईसीआईसीआई और एचडीएफसी बैंक जैसे बैंक लोगों को क्रेडिट स्कोर के आधार पर लेंडिंग रेट्स का फैसला भले ही नहीं कर रहे हों और फिक्स्ड टिकट रेट पर लोन दे रहे हों, फेडरल बैंक जैसे अपेक्षाकृत छोटा बैंक ऐसा कर रहा है ताकि मार्केट शेयर बढ़ाया जा सके। फेडरल बैंक के कंज्यूमर बैंकिंग हेड आर बाबू ने कहा, 'हम सिबिल ट्रांस यूनियन के स्कोर के आधार पर रिटेल कस्टमर्स को लोन पर बेहतर इंटरेस्ट रेट्स ऑफर करते हैं।'
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