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मुश्किल में सरकारी बैंक, न करें निवेश

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सरकारी मदद से पीएसयू बैंकों की तकदीर पलटने और उनके शेयरों से शानदार रिटर्न पाने की उम्मीद कर रहे लोगों को उमा शशिकांत की सलाह -

निवेशकों में एक आम बीमारी होती है। वे खुद को वॉरेन बफेट जैसा बनाना चाहते हैं और पिटने वाले शेयरों को खरीदने में मुनाफे का मौका ढूंढते रहते हैं। यह बात बुल मार्केट में इस उम्मीद के साथ की गई लिवाली से अलग नहीं है कि कोई बड़ा बेवकूफ उस शेयर की ज्यादा कीमत देगा।

बेयर मार्केट्स में निवेशक यह मानते हैं कि कीमत इतनी गिर चुकी है कि अब तो उसमें बढ़त जरूर आएगी। ऐसी बीमारी से पीड़ित लोगों की नजर अभी सरकारी बैंकों के शेयरों पर है। ऐसे लोगों से कहिए कि कदम बढ़ाने से पहले कुछ बातों पर गौर कर लें।

बैंकिंग डिपॉजिट जुटाने और लोन देने का बिजनस है। सरकारी बैंकों ने डूब सकने वाले लोन का जखीरा खड़ा कर लिया है। वे हालात को काबू कर सकते हों या नहीं, लेकिन यह बात तो हम सभी मान सकते हैं कि उनका कोर प्रॉडक्ट डिफेक्टिव हो गया है। मैनेजरों ने यह सब होने दिया है और इस लचर प्रदर्शन का जवाब किसी से पूछा नहीं जा रहा है। सरकार कंट्रोल छोड़ने को राजी नहीं हैं और 51% होल्डिंग बनाए रखते हुए मैनेजमेंट में बदलाव की कोशिश कर रही है। मुनाफा दबाव में है और बेहतर क्षमता वाले प्रतियोगी मार्केट शेयर पर हाथ साफ कर रहे हैं। लिहाजा सरकारी बैंकों के शेयर खरीदने की तुक समझ में नहीं आ रही है।

कुछ निवेशक भविष्य में ग्रोथ की संभावना का मुद्दा उठा सकते हैं। ऐसे में वे 1998-2002 का दौर याद दिलाएंगे। वे कहेंगे क्या तब भी 13% ग्रॉस एनपीए नहीं था? क्या तब बैंकों में अलग से पूंजी नहीं डालनी पड़ी थी? क्या तब कम ब्याज दरों और इकनॉमी की रफ्तार के मेल से बैंकिंग सेक्टर में जान नहीं लौटी थी? 2003-07 के बुल रन में बैंकिंग शेयरों ने इंडेक्स को आउटपरफॉर्म नहीं किया था? क्या अब भी हम ऐसे बदलाव की दहलीज पर नहीं हो सकते हैं? मेरा कहना है कि हो सकता है कि ऐसा न हो।

हिस्ट्री के पन्ने पलटने में यह बात नजरंदाज की जा रही है कि तब कैपिटल इन्फ्यूजन में एक बैंक ने दूसरे को सपोर्ट किया था और दूसरे पीएसयू एस्टैब्लिशमेंट्स ने आईपीओ और एफपीओ को सपोर्ट किया था। तब प्राइवेट सेक्टर के नए बैंक कड़ी चुनौती नहीं दे रहे थे। अभी तो सरकारी बैंकों के लिए कारोबार बढ़ाना और पूंजी जुटाना बहुत मुश्किल हो गया है।
कम मुनाफे के लंबे दौर (कुछ मामलों में तो घाटा भी), ऊंची प्रोविजनिंग और ज्यादा एनपीए ने बैंकों की बैलेंस शीट को कमजोर कर दिया है। फिर जब असेट क्वॉलिटी बिगड़ती है तो बैलेंस शीट को दुरुस्त करने के लिए ज्यादा पूंजी की जरूरत होती है।

3,00,000 करोड़ के बैड लोन के लिए 70,000 करोड़ का कैपिटल इन्फ्यूजन बिल्कुल अपर्याप्त है और ऐसे में बैलेंस शीट पर दिख रहे खतरे के कारण निवेशक हो सकता है कि इन बैंकों को इक्विटी कैपिटल मुहैया न कराएं।

जहां तक बैंकों को पूंजी देने से इकॉनमी के ग्रो करने और फिर इससे बैंकों का कारोबार बढ़ने की बात है तो विकसित देश 2008 के संकट के बाद ऐसा कर चुके हैं और अचरज में हैं कि इसका वांछित नतीजा क्यों नहीं मिला।

भारतीय संदर्भ में देखें तो माइनिंग, मेटल्स, टेक्सटाइल्स, इंफ्रास्ट्रक्चर और एविएशन सेक्टर्स के खाते में भारतीय बैंकों के एनपीए का 50 पर्सेंट से ज्यादा लोन है और अगर ये सेक्टर कम आमदनी और कम मुनाफे से जूझते रहें तो बैंकों और सरकार के लिए क्रेडिट, इनवेस्टमेंट और इकनॉमिक एक्सपैंशन का लक्ष्य काफी मुश्किल होगा।

बात अब वैल्यूएशन की आती है। इन बैंकों का आकर्षक प्राइस टु बुक रेशियो रिपोर्टेड कैपिटल और रिजर्व्स पर आधारित है। इंडियन बैंकिंग सिस्टम में आज दिक्कत असेट वैल्यूएशन पर भरोसा न हो पाने से जुड़ी है, जो 2009 के रिस्ट्रक्चरिंग मॉडल्स की देन है। आरबीआई अब ऐसे क्लासिफिकेशन को कूड़े में डालने और बैड लोन के लिए प्रोविजनिंग बढ़ाने को कह रहा है।

ऐसे में फिलहाल तो असेट्स की वैल्यू और घटेगी। अकाउंटिंग की बारीकियों को परे हटाकर निवेशक चाहें तो अपनी पसंद के बैंक की नेटवर्थ में से टोटल स्ट्रेस्ड असेट्स को घटाएं और फिर उसके शेयर की प्राइस टु बुक वैल्यू कैलकुलेट करें। नतीजा हैरान करने वाला हो सकता है।

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