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मंदी नहीं, करेक्शन के दौर में है मार्केट

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रवि धरमशी

सीआईओ, वैल्यू क्वेस्ट इनवेस्टमेंट एडवाइजर्स

'करेक्शन' और 'बेयर मार्केट्स' की कई परिभाषाएं हैं। इन दोनों में फर्क समझ लें तो बेहतर रणनीति बनाने में मदद मिलती है। अगर 1979 से सेंसेक्स का इतिहास देखें तो 10-30% गिरावट के 16 मौके दिखेंगे। ऐसे दौर 3-9 महीनों तक रहे। हालांकि केवल छह मौकों पर गिरावट 30% से ज्यादा रही और 9 महीनों तक ऐसा माहौल बना रहा। सेंसेक्स 30,025 के अपने पीक से करीब 20% गिर चुका है और हम सब करेक्शन के सातवें महीने में हैं।

मार्केट के बारे में अगर बेयरिश रुख हो तो भी शेयर बेचने के फैसले कंपनियों के फंडामेंटल्स पर आधारित होते हैं। कई स्टॉक्स प्राइस को ज्यादा नुकसान हुए बिना करेक्शन से उबर सकते हैं, लेकिन बेयर मार्केट की मार कुछ ही सह पाते हैं। असल बेयरिश फेज कभी-कभार ही आता है।

मार्केट में हर लंबे ट्रेंड की कुछ बुनियादी विशेषताएं होती हैं। ट्रेंड से जुड़ी अहम बात का असर खत्म होने या वैल्यूएशंस के बिल्कुल पस्त होने पर निवेश को बड़ा झटका लगने की चिंता पैदा होती है।

2011-15

आमतौर पर बुल मार्केट्स को इंटरेस्ट रेट्स में कमी और इकनॉमिक ग्रोथ से फ्यूल मिलता है। हालांकि इस बुल मार्केट को इसमें से किसी से मदद नहीं मिली। मेरी राय है कि इस ट्रेंड को हवा रिटर्न ऑन इनवेस्टमेंट (आरओई) ने दी। इस दौर में उन कंपनियों का बोलबाला रहा, जो अपना वजूद बनाए रख सकीं और जो मार्केट लीडर्स थीं। अलग तरह के प्रॉडक्ट पर आधारित बिजनेस वाली या नए मार्केट्स में विस्तार करने वाली कंपनियों ने अच्छा प्रदर्शन किया। आरओई में मदद लागत घटाने, मार्केट शेयर बढ़ाने, इनपुट कॉस्ट घटने और पैसे के बेहतर उपयोग से मिली। बाजार भले ही सुस्त हो रहा है, लेकिन दमदार प्लेयर्स इसमें अपनी हिस्सेदारी बढ़ा रहे हैं।

अगर यह गिरावट के एक लंबे दौर की शुरुआत है तो इस ट्रेंड की जमीन किससे बन सकती है? चीन में सुस्ती, ग्लोबल लेवल पर डिफ्लेशन, अमेरिका में रेट बढ़ोतरी और केंद्रीय बैंकों के पास विकल्पों का लगभग खात्मा।

कच्चे माल और फंड फ्लो के मामले में चीन से इंडिया की होड़ है, लिहाजा वहां की मौजूदा सुस्ती इंडिया के लिए नेट पॉजिटिव है। हालांकि कच्चे माल के निर्यातकों सरीखे ऐसे कुछ पक्षों को नुकसान हो सकता है, जिनका ट्रेड पार्टनर चीन है।

कच्चे माल की कीमतें तेजी से घटने से ग्लोबल लेवल पर डिफ्लेशन का डर पैदा हुआ है। इससे तमाम देशों के केंद्रीय बैंक अपनी अर्थव्यवस्थाओं को रिवाइव करने के लिए नरम रुख अख्तियार करेंगे। मार्केट्स की उथल-पुथल की धूल बैठने के बाद ऐसे देशों से कम ब्याज दर पर उठाई गई रकम इंडिया की ओर आएगी।

रोजगार के लचर आंकड़ों और ग्लोबल मार्केट्स की हालत को देखते हुए अमेरिकी फेडरल रिजर्व के 25 बेसिस प्वाइंट्स के रेट हाइक की गुंजाइश कम है। अगर रेट बढ़ता भी है तो असल बात यह होगी कि उसके बाद फेड का रुख कैसा रहेगा। हमारा मानना है कि वह नरम रुख बनाए रखेगा।

यह मानना हालांकि भूल होगी कि ग्लोबल झटकों का असर इंडिया पर नहीं आएगा। मार्केट्स में गिरावट के अभी जो भी कारण हैं, उनमें से ज्यादातर इंडियन इकनॉमी के लिए सकारात्मक हैं।

यह याद रखना चाहिए कि इंडिया पर आंच ग्लोबल उथल-पुथल से आई है और जो कुछ हो रहा है, उसके केंद्र में इंडिया नहीं है। जैसे ही यह तूफान शांत होगा, इंडिया एक दमदार अर्थव्यवस्था के रूप में सामने आएगा। इस बीच, अच्छे स्टॉक्स के वैल्यूएशन का लेवल घट रहा है और इससे उनमें पोजीशन लेने का ठीक मौका बन रहा है।

आक्रामक ढंग से फंड जुटाया जाना, कैपिटल एलोकेशन में उदारता और रिटेल पार्टिसिपेशन में तेज बढ़ोतरी ऐसे कुछ संकेत हैं, जिन पर मार्केट में टॉप फॉर्मेशन के दौरान नजर रखनी चाहिए। कर्ज लेकर शेयर खरीदने का चलन बढ़ना, बेतुके वैल्यूएशंस और तेजी का हो-हल्ला ऐसे दूसरे सेंटीमेंटल और टेक्निकल इंडिकेटर्स हैं, जो आगे चलकर संपत्ति को बड़ा नुकसान हो सकने का पता देते हैं। ये संकेत कुछ खास दमदार ढंग से नहीं दिखे हैं, लिहाजा चिंता की वजह नहीं है।

चूंकि वैल्यूएशंस का लेवल बेहद ऊंचा नहीं रह गया है, लिहाजा हमारा मानना है कि इंडियन इक्विटी मार्केट्स के बुलिश बने रहने की संभावना है।

कुलमिलाकर कहें तो मार्केट्स करेक्शन के दौर में है। करेंक्शन 20-30% की रेंज में हो सकता है और यह पीरियड 6-9 महीने तक चल सकता है। यह ध्यान रखें कि पूरे समुद्र का जलस्तर नहीं बढ़ रहा है, जिसके चलते हर नाव ऊंची दिखने लगे, लिहाजा स्टॉक्स चुनने में सतर्कता बरतें।

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